दिल्ली के एम्स में ऐसे सैकड़ों मामले सामने आ रहे हैं, जहां जन्म लेने वाला बच्चा न तो पूरी तरह लड़का होता है और न ही पूरी तरह लड़की। यह स्थिति डिसऑर्डर ऑफ सेक्स डेवलपमेंट (DSD) कहलाती है, जो कोई सामाजिक कलंक नहीं बल्कि एक मेडिकल कंडीशन है और इसका प्रभावी इलाज संभव है।
क्या है DSD बीमारी?
DSD यानी Disorder of Sex Development ऐसी स्थिति है, जिसमें बच्चे के जेंडर से जुड़े अंग, हार्मोन या क्रोमोसोम सामान्य विकास नहीं कर पाते। यह समस्या जन्म के समय भी सामने आ सकती है और कई मामलों में प्यूबर्टी (किशोरावस्था) के दौरान पता चलती है।
एम्स की पीडियाट्रिक एंडोक्राइनोलॉजी विभाग की प्रोफेसर और डीएसडी क्लीनिक की इंचार्जके अनुसार,
“DSD कोई दुर्लभ बीमारी नहीं है। हर 4 से 5 हजार बच्चों में से एक बच्चा इससे प्रभावित हो सकता है। इसके पीछे करीब 150 तरह की जेनेटिक कंडीशंस जिम्मेदार हो सकती हैं।”
नवजात से किशोरावस्था तक दिखते हैं लक्षण
DSD के मामलों में कई बार नवजात के जननांग स्पष्ट नहीं होते। वहीं, कुछ मामलों में समस्या तब सामने आती है जब:
डॉक्टरों के अनुसार, यह केवल जेंडर से जुड़ी समस्या नहीं होती, बल्कि कई बार इसके पीछे हार्मोनल असंतुलन, किडनी रोग या ट्यूमर जैसी गंभीर स्थितियां भी छिपी हो सकती हैं, जो जानलेवा साबित हो सकती हैं।
एक बच्चे की कहानी जिसने झकझोर दिया
एम्स में इलाज के लिए आए 10 दिन के एक नवजात बच्चे का मामला डॉक्टरों को आज भी याद है। बच्चे के जननांग अस्पष्ट थे और गंभीर इलेक्ट्रोलाइट असंतुलन पाया गया। जांच के बाद बताया गया कि बच्ची है और सर्जरी के जरिए आगे सामान्य जीवन संभव है।
लेकिन सामाजिक डर और गलतफहमी के कारण माता-पिता ने बच्चे को अपनाने से इनकार कर दिया। बाद में उसे चाइल्ड केयर होम भेजा गया और अंततः डेढ़ साल की उम्र में CARA के माध्यम से विदेशी दंपती ने गोद लिया। आज वह बच्चा पूरी तरह स्वस्थ है।
एम्स निदेशक का बयान
एम्स के निदेशक का कहना है,
“बच्चे का जेंडर तीन स्तरों पर तय होता है — क्रोमोसोम, शारीरिक बनावट और मानसिक पहचान। कुछ मामलों में संदेह होता है, तब जांच जरूरी होती है। एम्स में अब तक ऐसे हजारों नहीं बल्कि लाखों केस नवजात और प्यूबर्टी स्तर पर देखे जा चुके हैं।”
एम्स में DSD का स्पेशल क्लीनिक
एम्स दिल्ली में DSD स्पेशल क्लीनिक संचालित किया जा रहा है, जहां:
ट्रांसजेंडर से अलग है DSD
डॉ. स्पष्ट करते हैं कि DSD का ट्रांसजेंडर कंडीशन से कोई संबंध नहीं है। यह पूरी तरह एक मेडिकल बीमारी है, जिसका वैज्ञानिक इलाज किया जाता है।
काउंसलिंग क्यों है जरूरी?
DSD क्लीनिक के साइकेट्रिस्ट बताते हैं कि इस बीमारी को लेकर समाज में गहरा डर और कलंक है।
“पेरेंट्स मानसिक सदमे में चले जाते हैं। इसलिए बच्चों के साथ-साथ माता-पिता की काउंसलिंग भी उतनी ही जरूरी है, ताकि वे इलाज के लिए तैयार हों और बच्चे को स्वीकार कर सकें।”
डॉक्टरों की अपील
विशेषज्ञों का कहना है कि अगर बच्चे के जेंडर को लेकर भ्रम हो, तो शर्मिंदगी या डर में न आएं। समय पर सही अस्पताल और विशेषज्ञ टीम से संपर्क करने पर बच्चे की जिंदगी पूरी तरह सामान्य हो सकती है।