BJP’s U-Turn On Caste Census: संभवतः पहलगाम आतंकी हमले से जनता का ध्यान हटाने के लिए केंद्र सरकार ने विपक्ष से एक अहम राजनीतिक हथियार छीन कर देश भर में एक नई चर्चा शुरू करवा दी। अब हर दल इसी जातिगत गणना के पक्ष में है। सपा और बसपा का तो शुरू से एक ही का नारा है -“जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी।” भाजपा में अंदर ही अंदर कांग्रेस से यह मुद्दा हथियाने की मांग लगातार उठ रही थी। बिहार चुनाव से पहले सरकार का जातिगत जनगणना के लिए हामी भरना एक सोची समझी रणनीति माना जा रहा है। इस रणनीति का लिटमस टेस्ट भी बिहार चुनाव में हो जाएगा।
लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस के साथ मिलकर सपा ने जातीय जनगणना का राजनीतिक मुद्दे के रूप में बखूबी प्रयोग किया। इधर, सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने तो यहां तक कहना शुरू कर दिया कि यूपी में जिलेवार पीडीए (पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक) और गैर पीडीए अधिकारियों का डाटा जारी करेंगे। कई जिलों में तो सपा ने इसके आंकड़े भी जारी कर दिए।
बसपा प्रमुख मायावती भी जातीय जनगणना के पक्ष में आवाज बुलंद करती रही हैं। जब हर दल इसकी मांग कर रहा था तो सत्ताधारी पार्टी भाजपा को इस मुद्दे पर चर्चा करना मजबूरी बन गया। इस मुद्दे का असर लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा नेतृत्व को भी लगने लगा था।
उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ एक समय जब जातीय जनगणना केवल विपक्ष का मुद्दा था तब इसे तालिबानी मानसिकता बताते थे लेकिन आज वह भी इसके समर्थन में है। भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य भी कई बार सदन और उसके बाहर यह कह चुके हैं कि वे जातीय जनगणना के खिलाफ नहीं हैं। एक ऐसे समय में जब पहलगाम आतंकी हमले को लेकर वाक वीरों की संख्या बेतहाशा बढ़ गई है, जातीय जनगणना का फैसला राजनीतिक बहस के केंद्र बिंदु को बदलने का काम भी करेगा।
जेएनयू के सेवानिवृत्त शिक्षक और समसामयिक राजनीतिक मामलों के विशेषज्ञ प्रो. रवि कुमार कहते हैं कि भाजपा की राजनीति का सकारात्मक पक्ष यह है कि वे अपने खिलाफ कोई धारणा बनने देना नहीं चाहती। आम जनता में यह संदेश जा रहा था कि जातीय जनगणना न कराकर भाजपा ओबीसी हितों की अनदेखी कर रही है। इससे पहले कृषि कानूनों को भी भाजपा ने इसी सोच के साथ वापस ले लिया था।